जहां मन बुद्धि चित्त और अहंकार विसर जाता है वहां समाधि है, वही परम प्रेम है: मोरारी बापू

ओशो तपोवन काठमांडू से प्रवाहित रामकथा के चौथे दिन बापू ने कहा की जो गृह में स्थित वही गृहस्थ है।।जो भटकते नहीं,चार दीवाल में रहने वाला भटकाव बंद हो गया,निजता में बढ़ गया वह गृहस्थी। तो इस स्वरूप में हनुमान जी गृहस्थ है।। हृदय रूपी गृह में रहते है और हनुमान के हृदय में राम रहते हैं,राम के हृदय में हनुमान रहता है।।हनुमान वानप्रस्थ है वन विचरण निरंतर वन में रहते हैं।। सतयुग में शंकर रूप में,त्रेतायुग में राम के सेवक के रूप में,द्वापर युग में कृष्ण के रथ की ध्वजा में और कलयुग में कथा में रहते हैं।। चारो आश्रम,चारों युग और चारों वर्ण में हनुमान है।। सन्यासी का लक्षण कृष्ण उद्धव को कहते हैं।उद्धव ने पूछा।।
कृष्ण के दो परम सखा एक अर्जुन दूसरा उद्धव है और कृष्ण संन्यास के बारे में कह सकते हैं।। अज्ञानता ऐसी कूख है ऐसा गर्भ है जहां से पांच वस्तु निकलती है:राग,द्वेष,अस्मिता,अभिनिवेश और अविद्या।।यह पंचक्लेश भी कहते हैं।अस्मिता है अहंकार लेकिन हम गौरव के रूप में स्थापित करते हैं।।गर्व को हम गौरव कहते हैं।और यह पांचो के कारण अर्जुन कहता है कि है भगवान मैं आपको केवल सखा समझता हूं।।उद्धव पूछते हैं आपकी संन्यास की परिभाषा क्या है?अर्जुन ने न्यास त्याग और संन्यास को बिलग कैसे कहा वह पूछा है।। भगवत गीता में और भागवत के एकादश स्कंध में भी संन्यास के बारे में कहा है।।वहां लिखा है जमीन पर नजर रख कर चलना,शुद्ध पानी ही पीना सन्यासी का यह धर्म दिखाया।। हाथ में दंड है, कृष्ण कहते हैं त्रिदंड में एक दंड है वाणी का मौन।। बोलना ही पड़े तो सत्य बोलो,प्रिय बोलो और सीमित बोलो। दूसरा दंड है इच्छा हो तो नाचो, लेकिन अकारण शरीर को हिलाना नहीं। निर्जन और निर्भय स्थान पर रहें, निश्चेतन बैठना।।तीसरा दंड है अकेले बैठो तब सांस बंद करो। प्राणायाम करो तो भी हनुमान जी से कनेक्शन बनता है। हनुमान नाभि से आज्ञा चक्र तक घूमता है।हमारे अंदर पृथ्वी जल आकाश अग्नि तत्व कम हो तो चलेगा वायु तत्व के बगैर नहीं चलेगा।। रामचरितमानस में परम प्रेम की आठ पंक्ति मिलती है।।परम प्रेम सन्यास है। उसे मैं प्रेमाष्टक कहता हुं।।कृष्ण कहते हैं त्रि दंडी संन्यासी के पास यदि यह तीन ना हो और केवल बांस का टुकड़ा है तो वह बोझ सा लगता है।। जब हमारा मन प्रेम से भर जाए शरीर रोमांचित हो जाए तब उठो तो भी सन्यास गीरों तो भी सन्यास है।। परम प्रेम में उठाना और गिरना भी सन्यास है।। विक्षेप मुक्त चित् बिलोरी कांच जैसा अंत:करण।।राम में मर्यादा का सौंदर्य है कृष्ण में सौंदर्य की मर्यादा है।। कृष्ण का विलास-चैतसिक विलास जीवन भी बापू ने बताया किसी को शुद्ध दृष्टि से देखते नैन भीग जाये,प्रेम सन्यास है।यह क्रांतिकारी नहीं शांतिकारि सूत्र है। कबीर साहब भ्रांति हारि भी है क्रांतिकारी भी है और शांतिकारी भी है।।निर्दोष दृष्टि से देखने की बात है त्राटक करने वालों की आंखों में विष होता है तामसी दृष्टि लगती है। निर्दोष निर्दोष बालक को ध्यान से देखाने से आंखें भीग जाए तो यह प्रेम है।। सीता चितवत श्याम मृदु गाता।
परम प्रेम लोचन अघाता।।
श्याम राम की ओर देखते ही सीता की दृष्टि थकती नहीं है।पुरुष और पुरुष में जब परम प्रेम होता है वह समाधि है।
परम प्रेम पूरण दोउ भाई।
मन बुद्धि चित् अहनीति बिसराइ।।
जहां मन बुद्धि चित्त और अहंकार विसर जाता है वहां समाधि है, वही परम प्रेम है।। जहां विजातीय भी नहीं सजातीय भी दोनों भाई हो जाते हैं।। जीव और शिव का मिलन दिखाया और लक्ष्मण और शत्रुघ्न मिले वहां जीव से जीव का मिलन है। वह परम प्रेम का दृश्य खड़ा करता है। ऐसे ही लक्ष्मण और भारत मिले वहां परम प्रेम शब्द लिखा है। तो परम प्रेम एक सन्यास है। बुद्ध पुरुष की दृष्टि से जब परम प्रेम से प्रभु देखते हैं तो बिना ग्रंथ बिना सोपान ज्ञान मिल जाता है।।आंख की बड़ी महिमा है। कृष्ण का चैतसिक विलास पूर्ण सन्यास है। राम का संन्यास विवेक पूर्ण है। शंकर का विलास और वैराग्य दोनों से भरा सन्यास है।। सद्गुरु अनुभव छीन लेता है अनुभूति देता है। अनुभव में बोलने की जगह रहती है।अनुभूति चुप कर देती है। कभी सिर्फ आंसू बच जाते हैं।।

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