नई दिल्ली । बंगाल में भगवा फहराने के लिए भाजपा ने हिंदुत्व के साथ साम, दाम, दंड, भेद के साथ पूरी ताकत से चुनाव लडा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिन्दूत्व के सबसे बडे लोकप्रिय नेता हैं। उन्होंने भी कोई कोर-कसर नहीं छोडी। लेकिन मतदाताओं ने उन्हें भी नकार दिया। बंगाल के चुनाव परिणाम ने भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। सीधे मुकाबले में देश में उसकी हिंदुत्व वाली राजनीति नहीं चलने वाली। जिस हिंदुत्व के नाम पर आज भाजपा विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई है, अब वही हिंदुत्व उसके पतन का कारण बन सकता है।
गौरतलब है कि राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा ने हिंदुत्व का सबसे बड़ा प्रयोग 2002 में गुजरात में किया था। गोधरा कांड के बाद हिंदुओं को एकजुट करने की जो रणनीति संघ और नरेंद्र मोदी ने अपनाई थी, उसमें उन्हें सफलता भी मिली। इस रणनीति के दम पर भाजपा ने गुजरात सहित मप्र, छग, राजस्थान, महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में सरकार बनाने में सफलता हासिल की। इसके बाद भाजपा ने हिंदुत्व को मुद्दा बनाकर लोकसभा के साथ ही कई राज्यों के विधानसभा चुनाव जीते।
पश्चिम बंगाल में हिंदुत्व हुआ फेल
पश्चिम बंगाल में भाजपा ने हिंदुत्व के दम पर दीदी को बेदम कर सत्ता कब्जाने की कोशिश की। इसके लिए पिछले 5 साल से हिंदुत्व की रणनीति पर काम किया गया। लेकिन पश्चिम बंगाल की जनता भाजपा के झांसे में नहीं आई। यही कारण है कि चुनाव अभियान के दौरान श्रीराम के नाम पर हिंदुओं को अपने पक्ष में करने का भाजपा का प्रयास बंगाली अस्मिता में विफल हो गया।
विपक्ष भी बंटा नहीं
भले ही 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन सबकी निगाहें पश्चिम बंगाल पर थीं। भाजपा ने बंगाल कब्जाने के लिए वह सबकुछ किया, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है, लेकिन पहली बार ऐसा देखा गया कि पश्चिम बंगाल में भाजपा विरोधी बंटे नहीं। उलटे एकजुट हो जाने से सीधा मुकाबला भाजपा और टीएमसी के बीच हुआ। सीधे मुकाबले में भी भाजपा हिंदू वोटों को एक नहीं कर पाई। वहीं मतदाता भी पहली बार अपनी राजनीतिक विचारधारा से हटकर भाजपा को हराने एकजुट हो गए। इस कारण भाजपा की मंशा पूरी नहीं हो पाई।
महंगाई और वादाखिलाफी बनी विलेन
दरअसल, पश्चिम बंगाल में भाजपा अपने ही जाल में फंसती चली गई। राज्य में भाजपा धु्रवीकरण की राह पर चल रही थी, जबकि वहां की जनता महंगाई और वादाखिलाफी से त्रस्त थी। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि ने लोगों की नाराजगी की आग में घी का काम किया। चुनाव के दौरान भाजपा नेताओं के अंहकार और भाजपा के वादों का आंकलन किया। केंद्र और भाजपा शासित राज्यों की कथनी और करनी पर विश्वास नहीं किया। बंगाल के मतदाता अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार नहीं हुए।
संघ और जमीनी कार्यकर्ता भी नाराज
पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार की एक वजह यह भी रही कि संघ और भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता पार्टी की नीतियों से नाराज रहे हैं। इस कारण इन्होंने विधानसभा चुनाव में लगन के साथ काम नहीं किया। दरअसल, भाजपा ने देशभर में मजबूत होने के बाद से संघ के स्वयंसेवकों और अपने जमीनी कार्यकर्ताओं के स्थान पर दल बदलुओं को महत्व दिया है। जबकि भाजपा की मजबूती को आधार संघ और भाजपा के कार्यकर्ता हैं। भाजपा की यही भूल अब उसके लिए शूल बनने लगी है।
भाजपा का वोट शेयर 2 फीसदी घटा
भाजपा पश्चिम बंगाल में बड़ी जीत की आशा लगाए बैठी थी। लेकिन भगवा दल को इस राज्य में महज उम्मीद से कम सीटों का ही दंश नहीं सहना पड़ा, बल्कि 2019 के लोकसभा चुनावों के मुकाबले मतदाताओं की चोट सहनी पड़ी। पश्चिम बंगाल में जहां भाजपा की कुल मतों में हिस्सेदारी 2019 लोकसभा चुनाव के मुकाबले 2 फीसदी कम रही, वहीं जबरदस्त जीत के साथ हैट्रिक लगाने वाली तृणमूल कांग्रेस के मतदाताओं में 5 फीसदी की व़द्वि हुई। भाजपा को 38.09 फीसदी मत मिले हैं, जबकि 214 सीट पाने वाली ममता दीदी की तृणमूल कांग्रेस पर 47.93 फीसदी मतदाताओं ने विश्वास जताया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 40.7 फीसदी मत हासिल कर 18 सीट जीती थीं और 43.3 फीसदी मत पाने वाली टीएमसी को मिले थे।
8 साल में ही पतन की ओर
2013 से ‘कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान पर निकले नरेंद्र मोदी और अमित शाह आठ साल बाद क्षेत्रीय दलों का सफाया करके ‘भाजपामय भारत का लक्ष्य हासिल करने की राह पर थे। पश्चिम बंगाल, उनकी राह में पहाड़ बनकर खड़ा हो गया। मोदी की लोकप्रियता और शाह की कथित बहुचर्चित ‘चाणक्य नीति का मेल ममता दीदी के आगे फेल हो गया। इस चुनाव परिणाम ने यह संकेत दे दिया है। वहीं विपक्षी दलों और मतदाताओं को नई राह दिखादी है।
निणर्यों को चुनाव से जोडना महंगा पडा
पश्चिम बंगाल का मतदाता बुद्विजीवी है। नोटबंदी, जीएसटी, मंहगाई, बेरोजगारी, पेट्रोल, डीजल और गैस की बढती कीमतों को चुनाव जीतने के बाद जनता की स्वीकार्यता बताने से अब मतदाता भाजपा के खिलाफ नहीं होने के बाद भी भाजपा के खिलाफ वोट रहा है। भाजपा नेतृत्व ने समय रहते ध्यान नहीं दिया तो आने वाले चुनावों में भाजपा की मुश्किलें और बढेगी।