नई दिल्ली । भारत में लोकतंत्र और संविधान बचाए रखने के लिए दुहाई देकर सत्तापक्ष एवं विपक्ष एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाकर राजनीति कर रहे हैं। हकीकत में भारत के संविधान में पिछले 5 दशक में संविधान में संसोधन सत्ता में बने रहने के लिए राजनेताओं ने किये हैं। उसने संविधान की मूल भावना को कमजोर करने का काम सभी राजनैतिक दल मिलकर कर रहे हैं।
अमेरिका का लिखित संविधान 1789 से लागू है। 232 साल के इतिहास में 27 संविधान संसोधन अमेरिका में हुए है। अमेरिका के नागरिकों की संविधान में जिस तरह की आस्था हैं। उससे अमेरिका में संविधान के अंतर्गत नियम कानून एवं नागरिकों के अधिकार बने हुए हैं
भारत के संविधान को लेकर हमारी विद्यायिका कितनी गंभीर है। 70 साल के इतिहास में 127 संविधान संसोधन कर सत्ता में बने रहने के लिए राजनैतिक दलों ने अपने बहुमत का भारी दुरुपयोग किया है।
हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट को संविधान की मूल भावना से कोई छेड़छाड़ ना हो। संविधान ने इसका दायित्व न्यायपालिका को दिया है। नागरिकों के मौलिक अधिकार जिसमें सामाजिक न्याय, आर्थिक, धार्मिक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित बनाए रखने की जिम्मेदारी न्यायपालिका को सौंपी गई है। न्यायपालिका भी अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रही है। उल्टे न्यायपालिका पर जिस तरह का दबाब पिछले वर्षों में सरकार का देखने को मिल रहा है। उससे नागरिकों के मूल अधिकार शनै: शनै: सीमित होते जा रहे हैं। भारतीय नागरिकों में अपने मौलिक अधिकारों को लेकर जो जागरुकता होनी चाहिए, वह देखने को नहीं मिलती है। पिछले 50 वर्षों में कानूनों एवं नियमों के मकड़जाल में आम आदमी फंसकर फड़फड़ा रहा है। महंगी न्याय व्यवस्था और कई दशकों तक न्याय नहीं मिल पाने से आम आदमी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कार्यपालिका के बंधन में फंसकर फड़फड़ा रहा है। डर और भय से छोटे-बड़े सभी भयाक्रांत है। पिछले 3 दशकों में नियामक आयोग के माध्यम से नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित बनाए रखने के लिए बनाये गए हैं। वह भी नागरिकों का शोषण कर रहे हैं। इसमें कम्पनियों की सुनवाई होती है। सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया है। अदालतों में वकीलों की फीस, कोर्ट फीस, न्यायालय तक पहूंचने एवं कई वर्षों तक पेशियों में जाना गरीब एवं मध्यमवर्गीय परिवारों को न्याय नहीं मिलता है। न्याय के नाम पर भारत के करोड़ों नागरिक अन्याय के शिकार हो रहे हैं। राजनैतिक दल, शासन-प्रशासन और न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारी एक-दूसरे के ऊपर डालकर अपनी सत्ता को बरकरार और ताकतवर बना रहे हैं। वहीं आम आदमी कराह रहा है। सालों का यही सच है।