नई दिल्ली । दक्षिण अफ्रीका में कोरोना वैक्सीनेशन की रफ्तार काफी धीमी है। इसका एक कारण यह भी है कि यहां पाए गए कोरोना वायरस के वैरिएंट के खिलाफ वैक्सीन उतनी प्रभावी नहीं है। दक्षिण अफ्रीका के पोस्ट ईडवर्ड में कोरोना मरीजों का इलाज कर रहे डॉ शंकर चेट्टी ने कहा कि यह एक बड़ी चुनौती है। कोरोना महामारी से निपटने के अपने अनुभव साझा किए।
व्यापक वैक्सीनेशन कोरोना से लड़ने की प्रभावी रणनीति हो सकती है, इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि साउथ अफ्रीका में वैक्सीनेशन अभियान धीरे-धीरे चल रहा है क्योंकि यहां के कोरोना स्ट्रेन पर वैक्सीन असल में प्रभावी नहीं है। हमें वैक्सीनेशन को लेकर भी एहतियात बरतने की जरूरत है।
कोरोना वायरस की पहली लहर के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि यहां की सरकार ने सख्त लॉकडाउन लगाया था, लेकिन यह समाज के हर तबके पर एक समान लागू नहीं था। समाज के निचले तबके में यह वायरस तेजी से फैला। इस तबके के लोग एक दूसरे से आइसोलेट होकर रहने में असमर्थ थे। हालांकि दूसरी लहर के आने के बाद वैक्सीनेशन शुरू हो गया था।
उन्होंने बताया कि यहां हमने देखा कि संक्रमित होने के बाद अश्वेत जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा हर्ड इम्यूनिटी विकसित कर चुका था। अब रिसर्च में सामने आ रहा है संक्रमण के बाद विकसित हुई यह हर्ड इम्यूनिटी लंबे समय तक रह रही है। डॉ चेट्टी ने कहा कि हमें ऐसे में देखना चाहिए कि हम उन्हें वैक्सीन लगा रहे हैं, जो हर्ड इम्यूनिटी विकसित कर चुके हैं और उनके लिए वैक्सीन रिजर्व करनी चाहिए जिनमें हर्ड इम्यूनिटी विकसित नहीं हुई है।
डॉ शंकर चेट्टी ने बताया कि दक्षिण अफ्रीका का अनुभव ऐसा रहा है जहां वैक्सीन वायरस के खिलाफ प्रभावी नहीं रही है। हां यह जरूर है कि वैक्सीन की मदद से गंभीर संक्रमण रोकने में मदद मिली है। उन्होंने कहा मुझे लगता है कि वायरस के वैरिएंट के म्यूटेशन के साथ ही उन देशों में भी संक्रमण के मामले आएंगे जिन्होंने बड़े पैमाने पर टीकाकरण अभियान बहुत प्रभावी ढंग से चलाया है।
इस चर्चा के दौरान मौजूद अन्य देशों के डॉक्टरों ने कहा कि विश्वभर में वैक्सीन के साथ-साथ हमें कोरोना के मद्देनजर जारी प्रोटोकॉल का भी पालन करना जरूरी है। पैनल में शामिल ज्यादातर डॉक्टरों ने डेक्सामेथासोन के जरिए ट्रीटमेंट पर सहमति जताई। उल्लेखनीय है कि बीते साल ब्रिटेन के विशेषज्ञों ने भी कहा था कि डेक्सामेथासोन कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में बड़ी उपलब्धि है। यह पहली बार 1957 में बनी थी। 1960 में इसे एफडीए ने भी मेडिकल इस्तेमाल के लिए मंजरी दे दी थी। यह कम दाम पर मिलने वाला स्टेरॉयड है।